Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

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Page 496
________________ ४६० : धर्मविन्दु अपेक्षाया दुखरूपत्वादिति ॥५३॥ (५३४) मूलार्थ-अपेक्षा ही दुःखरूप है (अतः निरपेक्षता सुख है)। विवेचन-दूसरे पर आधार रखनेले वास्तविक सुख होता ही नहीं। दूसरेका आधार रखना ही दुःखमूलक है। अत. आत्माका आनंद ही दूसरेकी अपेक्षा विना सुख है। अर्थान्तरमाप्त्या हि तनिवृत्तिखत्वेना निवृत्तिरेवेति ॥५४॥ (५३५) मूलार्थ-अन्य विपयोंकी प्राप्तिसे इच्छाकी निवृत्ति होने पर भी दुःखरूप होनेसे अनिवृत्ति ही है ॥५४॥ विवेचन-इन्द्रियोंके विषय सुखकी प्राप्तिसे दुखकी या इच्छाकी निवृत्ति होती है। पर वह वस्तुन. क्या है । दुःखरूप ही है । बाह्य पदार्थोंकी इच्छा होने पर उनके मिलनेसे कुछ सुख तो मिलता है तब भी वह वास्तवमें दुःख ही है। वह तृप्ति देनेवाला नहीं है, भणिक है, दुःख ही है। अतः आत्माके आनंदके सिवाय अन्य पदार्थोंकी प्राप्तिका सुख शाश्वत नहीं है। न चास्यार्थान्तरावाप्तिरिति ॥५५।। (५३६) मूलार्थ-मोक्षके जीत्रको अन्य पदार्थकी प्राप्ति नहीं रहती। विवेचन-न च-फिरसे नहीं, अस्य--सिद्ध जीवको, अर्थान्तरा-वाप्ति-अपनेसे भिन्न भावसे सबंध । मोक्षमें गये हुए जीवको अपनेसे भिन्न अन्य पुद्गल आदि ‘भावसे कोई संबंध नहीं रहता। अत आत्माको दुःख नहीं है, वह परम आनंद पाता हैं।

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