Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

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Page 494
________________ ४९८ : धर्मबिन्दु मृलार्थ-भावसहित प्रवृत्ति निवृत्ति ही वस्तुत. प्रवृत्ति निवृत्ति है ऐसा सब जगह मुख्य व्यवहार हैं ।।४९।। विवेचन-भावसारे-मनके संकल्प विकल्प सहित, सर्वत्रकरने योग्य या न करने योग्य सब कार्योंमें, प्रधान:-भावरूप, व्यवहार:-लोकव्यवहार या आचार । मनके भावसहित जो प्रवृत्ति निवृत्ति होती है वही तत्त्वतः प्रवृत्ति या निवृत्ति गिनी जाती है । द्रव्यसे प्रवृत्ति या निवृत्ति वस्तुतः प्रवृत्ति निवृत्ति नहीं है । जो द्रव्यसे चारित्र पाले पर उसमें भाव न हो तो वह क्रिया करनेवाला शास्त्र में चारित्रधारी नहीं गिना जाता । ऐसे ही असंही प्राणी बड़े मत्त्य घोर कर्म करने पर भी ज्यादा बुरा आयु नहीं बांधते । वे सातवी नरकका आयु वाघनेका पाप करने पर भी भावरहित होनेसे वैसा कर्म नहीं बाधते । ऐसे ही केवली भगवान जिनको संसार व मोक्ष समान होता है और जो किसीकी मी स्पृहा नहीं रखते ऐसे सयोगी केवली पूर्व संस्कार वग ही शास्त्रविहित अनुष्टानमें प्रवृत्ति करते है और अन्य कार्यों से निवृत्त रहते हैं । वे भावसे प्रवृत्ति-निवृत्ति नहीं करते अत उसे व्यवहारमें प्रवृत्ति निवृत्ति नहीं गिना जाता। प्रतीतिसिद्धश्चायं सद्योगसचेतसामिति ॥२०॥ (५३१) ___ मूलार्थ-सद्ध्यान योगसहित सावधान मनवाले मुनियोको उपरोक्त अनुभव सिद्ध है ||५०॥ विवेचन-प्रतीतिसिद्धः-अपने अनुभवसे सिद्ध है, अयं-पूर्वोक

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