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४५४ : धर्मविन्दु होता है वे सब सिद्ध जीवको नहीं होते। तब वहां क्या होता है ? उत्तरमें कहते हैं---
विशुद्धस्वरूपलाभ इति ॥३८॥ (५१९) मूलार्थ-अति शुद्ध आत्मस्वरूप प्राप्त होता है ॥३८॥
विवेचन-कर्ममलसे रहित निर्मल आत्माके स्वरूपका लाभ है । आत्मा आनदमय और सर्वज्ञ होता है । तथा-आत्यान्तिकी व्यावाधानिवृतिरिति
॥३९॥ ५२०) मूलार्थ-और दुःखकी अत्यंत निवृत्ति होती है ॥३९॥ विवेचन-व्यायाधानिवृत्तिः-शरीर व मनकी व्यथासे रहित ।
आधि, व्याधि व उपाधिके त्रिविध ताप दूर हो जाते हैं । शरीर व मन संबंधी सब दुःखोका पूर्णतः अंत हो जाता है। इस पीडाका पूर्ण उच्छेद होता है।
सा निरूपमं सुखमिति ॥४०॥ (५२१) मूलार्थ-वह दुःखनिवृत्ति अनुपम सुख है ॥४०॥
विवेचन-मोक्षमें मन व शरीरकी पीडासे सर्वथा जो निवृत्ति होती है वही ऐसा सुख है जिसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती। वही परम सुख है उस सुखकी प्राप्तिके बाद कोई तृष्णा नहीं रहती। दुःखका पूर्ण विच्छेद ही पूर्ण सुख होता है। उसका कारण
सर्वत्राप्रवृत्तेरिति ॥४१॥ (५२२)