Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

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Page 488
________________ ४५२ : धर्मबिन्दु विवेचन-द्वितीय अध्यायमें विस्तारसे यह सिद्ध किया है कि कर्म भी भात्माके साथ ही अनादि है, उससे कर्मवालेको ही पुनर्जन्म आदि होता है'-यह भाव सिद्ध होता है । कर्मरहित सिद्ध आत्माओंको पुनर्जन्मादि नहीं होता। कोई शंका करे कि निग्न वचनके प्रमाणसे अकर्मा भी जन्म लेता है "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम् । · गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः ॥२१६॥" -धर्मतीर्थको करनेवाले ज्ञानी पुरुष मोक्षमें जाकर तीर्थका उच्छेद देखकर पुनः इस संसारमें आते हैं"। तो अकर्मा कैसे जन्म नहीं लेता ? कहते हैं सर्वविप्रमुक्तस्यतु तथास्वभावत्वानिष्ठितार्थत्वान्न तद्ग्रहणे निमित्तमिति ॥३४॥ (५१५) मृलार्थ-सर्वथा कर्ममुक्त जीव स्वभावतः ही कृतकृत्य होनेसे पुनः जन्म नहीं लेते क्योंकि पुनः जन्म लेनेका कोई निमित्त ही नहीं होता ॥३४॥ __विवेचन-निष्ठितार्थत्वात-उन्होंने सब प्रयोजन पूर्ण किया हुआ है, तद्ग्रहणे-जन्मादिका होना, निमित्त-हेतु या कारण । ___ वे मोक्षगामी जीव सब कर्मोंसे सब प्रकारसे मुक्त हैं। वे अपना सब प्रयोजन पूर्ण कर चुके हैं। उनका साध्य सिद्ध हो चुका

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