Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

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Page 484
________________ १४८ : धर्मविन्दु धर्मका शुभ आचरण करने में प्रवृत्त होते है । उस धर्माभ्याससे उनका संबंध होता है और गृहस्थ धर्म या यतिधर्म पालन करने लगते है । ततः परमापायहानिरिति ॥२३॥ (५०४) मूलार्थ-तब उत्कृष्ट, अनर्थकी हानि होती है ॥२३॥ विवेचन-परमा उत्कृष्ट, अपायहानिः-नरक व तिर्यचकी कुगतिमें जानेके महान अनर्थकी हानि । ___ वे मनुष्य धर्मको पा जाते है उससे उनकी तिर्यच व नरककी कुगति नष्ट हो जाती है। इससे वे इन गतियोंसे होनेवाले अनर्थसे बच जाते हैं। तब जितना उपकार प्रभु करते हैं और उन भव्य प्राणियोंको जो लाभ होता है वह कहते हैंसानुबन्धसुखभाव उत्तरोत्तर प्रकामप्रभूतसत्त्वोपकाराय अवन्ध्यकारणं निवृत्तरिति ॥२४॥ (५०५) मूलार्थ-उत्तरोत्तर विशेष अविच्छिन्नसुखभाव उन प्राणियोंके उपकारके लिये होता है और उससे वह मोक्षका अवन्ध्य (सफल) कारण है ॥२४॥ विवेचन-उत्तरोत्तर- क्रमशः अच्छेसे अच्छा, प्रकाम-प्रौढ, अवन्ध्यकारणं -सफल हेतु। सदनुष्ठानसे मनुष्यको सुख मिलता है और अन्योंका कल्याण करते रहनेसे उत्तरोत्तर क्रमशः अधिक सुख मिलता जाता है और 'अंततः मोक्ष मिलता है। निरंतर उत्कृष्ट सुखभावसे, निरंतर अन्य प्राणियोंका उपकार करते रहनेसे अवश्य मोक्ष मिलता है। परोपकारसे

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