Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

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Page 485
________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४४९, ही विशेष सुख मिलता है अतः सुखका साधन ही परोपकार है। . इति परम्परार्थकारणमिति ॥२५॥ (५०६) __ मूलार्थ-अतः तीर्थकरपद उत्कृष्ट परोपकार करनेवाला है । विवेचन-तीर्थकरके वचनसे मोहांधकार मिट कर सूक्ष्मभाव समझे जाते हैं, सदनुष्ठानकी प्राप्ति होती है, कुगति मिट कर सुखलाभ होता है। उससे उत्तरोत्तर अधिक परोपकार करते हुए मोक्षमुखकी प्राप्ति होती है। इस तरह विभिन्न प्राणियोको उत्कृष्ट सुख प्राप्त करानेमें तीर्थंकरपद विशेष लाभदायक होता है। वह दूसरोका उत्कृष्ट कल्याण करनेवाला है। अब फिरसे दोनोंका (तीर्थकर व अन्य चरमदेहका ) साधारण धर्मफल कहते हैं भवोपग्राहिकर्मविगम इति ॥२६॥५०७) मूलार्थ-भवोपग्राही कर्मका नाश होता है ॥२६॥ विवेचन- भवोपग्राहिकर्म- वेदनीय, आयु, नाम व गोत्रके चार कर्म, विगमः- नाश। भवको मदढरूप, जन्म के सहायकरूप चारों कर्म वेदनीय, आयु, नाम व गोत्रके अघाती कमौका चौदहवें गुणस्थानकके अंतमें पूर्वकोटि मादि परिणाममें सयोगिकेवली पर्यायका पालन करनेके बाद नाश हो जाता है। :. ततः निर्वाणगमन मिति ॥२७॥ (५०८) मूलार्थ-तब निर्वाणप्राप्ति होती है ॥२७॥

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