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४४४ :धर्मविन्दु
मूलार्थ-भावरोगके पूर्ण नाशसे परमेश्वर पद प्राप्त होता है और उससे स्वभावतः परम सुख मिलता है ॥१४॥
विवेचन-परमेश्वरतायाः आप्ति:-इन्द्र व चक्रवर्तीके ऐश्वर्यसे अतिशय अधिक केवल ज्ञान आदि लक्षणवाले परमेश्वरताकी प्राप्ति, तत् तथास्वभावत्वात्- परमेश्वरताके स्वभावसे ही परम सुखभाव पैदा होता है।
राग आदि तीनों दोपोके पूर्ण नाश हो जानेसे, भाव रोगके सर्वथा नाश हो जानेसे, इंद्र व चक्रवर्तीसे अधिक ऐश्वर्यवाला परमेश्वर पद मिलता है और उस स्थितिमें स्वभावतः उत्कृष्ट मुख और आनंद मिलता है । आत्मा परमानंदको प्राप्त करती है।
इस प्रकार तीर्थकर व अन्य केवली या चरमदेहीको मिलनेवाले सामान्य अनुपम धर्मफलका वर्णन किया। अव तीर्थकरके संवधर्म असाधारण फलका वर्णन करते हैं
देवेन्द्रहर्षजननम् ॥१५॥ (४९६) मूलार्थ-'तीर्थकरत्व) देवेन्द्रको हर्ष उत्पन्न करनेवाला है।
विवेचन-देवेन्द्राणां-चमरेंद्र, शकेंद्र आदिको, हर्षस्यसंतोषका, जननं उत्पन्न करनेवाला ।
तीर्थकरका जन्म होनेवाला है ऐसा जानकर सब देवताओं और इंद्रको हर्ष होता है।
तथा-पूजानुग्रहाइतेति ॥१६॥ (४९७) ~ मूलार्थ-और पूजा द्वारा जगत्के उपकारका कारण है।