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४४२ : धर्मविन्दु
चंदन आदि उपादेय पदार्थों के भावका ज्ञान या विवेक, प्रतिबन्धविधानात् - रोकना, इस विवेक या ज्ञानके उत्पन्न होनेमे विघ्नरूपमोह दोष है ।
मोह एक उन्माद है | वह अज्ञान नामक रोग है । त्याज्य और ग्राह्य वस्तुएँ तथा भावोंके योग्य ज्ञान व विवेकको रोकनेवाला यह अज्ञान है । इस मोहसे, इस अज्ञानसे अग्राह्य या व्याज्य वस्तुओं को प्राप्त करनेकी लालसा व्यक्ति में होती है तथा वह ग्राह्य वस्तुओंको ग्रहण करनेकी ओर नहीं बढता । यह मोह नामक दोपके ही कारण है । मोहसे ही असत् मार्गमें प्रवृत्ति होती है । मोहसे बुद्धि निस्तेज होती है। विवेक बुद्धिसे ही यथार्थ ज्ञानसे ही मोहका बल कम किया जा सकता है | राग द्वेष व मोहके भाव संनिपातको बताते हुए कहते है
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सत्स्वेतेषु न यथावस्थितं सुखं, स्वधातुवैषम्यादिति ॥१२॥ (४९३)
मूलार्थ - इस त्रिदोष के होने से मूल प्रकृतिकी विषमतासे यथार्थ सुख नहीं मिल सकता ॥१२॥
विवेचन - सत्स्वेतेषु - राग आदि त्रिदोषके होनेसे, न - नहीं होता, यथावस्थितं - जीवका पारमार्थिक या यथार्थ सत्य सुख, स्वधातुवैषम्यात् - जीव स्वरूपको धारण करनेवाली धातु, धातवः - आत्माके "सम्यग्दर्शन आदि गुण, उनकी विषमता अर्थात् जीवका सत्य स्वरूप 'नहीं दीखता पर अन्यथारूप दीखता है ।