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धर्मफल विशेष देशना विधि : ४४१ तत्रैवाग्निज्वालाकल्पमात्सर्यापादनाद्
द्वेष इति ॥१०॥ (४९१). __ मूलार्थ-उसी नाशवान पदार्थ पर आसक्तिके कारण अग्निज्वाला समान मत्सर करना द्वेष है ॥१०॥
विवेचन-तत्रैव-त्री आदि पदार्थमें आसक्ति होनेसे अग्निकी ध्वाला समान जो सम्यक्त्व आदि सब गुणोंको जला देता है ऐसा मत्सर-दूसरेकी संपत्तिम असहिष्णुता-सहन न करना, आपादनात्होनेसे । । ____ जब किसी वस्तु पर आसक्ति हो और उसे प्राम करनेमें कोई बाधा आवे तब उसे सहन न करना, और उस पर क्रोध करना ही द्वेष है। यह द्वेष प्रमोद भाव तथा सम्यग्दर्शन आदि शुभ गुणोका नाश करता है अत: अग्निसमान है । द्वेष मन व आत्माकी निर्मल वृत्तिओंका नाश करता है । दूसरोके प्रति असहिष्णु वनना व क्रोध ही द्वेष है ! द्वेष आत्माकी वृद्धिको रोकता है अतः उसे छोडना चाहिये । हेयेतरभावाधिगमप्रतिवन्धविधानान्मोह
इति ॥११॥ (४९२) मूलार्थ-हेय व उपादेय भावके ज्ञानको रोकनेवाला मोह नामक दोष है ॥११॥
विवेचन-हेयानां-निश्चय नयसे त्याज्य, मिथ्यात्व आदि, इतरेषां-उपादेय या ग्राह्य जैसे सम्यग्दर्शन आदि, भावाधिगम:इन भावोंका-या व्यवहार नयसे विष व कंटक आदि हेय तथा माला,