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४४० : धर्म चिन्दु
रागद्वेष मोहादिदोषाः, तथा तथाऽऽत्मदूषणादिति ||८|| (४८९)
मूलार्थ - उस उस प्रकार से आत्माको दूषित करनेसे राग, द्वेष व मोह तीनों दोष हैं ॥ ८ ॥
विवेचन - दोषः - भावसंनिपातरूप त्रिदोष, तथा तथा उस उस प्रकारसे असक्ति आदिसे (द्वेष व मोह पैदा करा कर ) ।
जैसे शरीर के रोग में वात, पित्त व कफका त्रिदोष होता है वैसे ही आत्मा के रोगके लिये राग, द्वेष व मोहका त्रिदोष है जो व्यात्माको आसक्ति आदि दोषोंद्वारा दूषित करते हैं, जीव विकार पैदा करते हैं । यह मावरोग आत्माको निर्बल बनाता है | रागादिके बारेमे 'तत्त्व (स्वरूप), भेद व पर्याय' से व्याख्या करके बताते हैं
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अविषयेऽभिष्वङ्गकरणाद् राग इति ||९|| ( ४९० ) मूलार्थ - अयोग्य विषयोंमें आसक्ति ही राग है ||९|| .. विवेचन - अविषये-स्वभावसे ही नाशवान स्त्री आदि, जिन पर बुद्धिमानोंको आसक्ति न करनी चाहिये, अभिष्वङ्गकरणाद् - मनकी आसक्ति करना ।
आत्माको छोड कर सब वस्तुएं क्षणभंगुर है । स्त्री आदि तथा अन्य जड वस्तुओं पर जो स्वभावसे ही नाशवान है आसक्ति रखना राग है | अतः सब परसे राग-आसक्ति भाव हठाना । चाहिये केवल आत्मा अविनाशी है अन्य संब नाशवान है अतः उन परसे रागको हठावे और आत्मतत्त्वका चिंतन करे ।
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