Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

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Page 474
________________ ४३८ : धर्मविन्दु जैसा आयुवध किया हो उसे भोग कर भवांतर में क्षपकश्रेणि प्रारंभ करता है । यहां अपूर्वकरण के बाद क्षपकश्रेणिकी बात कही है वह सैद्धांतिक पक्षकी अपेक्षासे कही है | इसके अनुसार अपूर्वकरण गुणस्थानमे रह कर दर्शन मोहनी के सप्तकका क्षय करता है । कर्मग्रन्थके अभिप्राय से ऐसा नही है । उसके अभिप्राय से अविरत सम्यग्दृष्टि, विरत सम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त गुणस्थानक आदि चार गुणस्थानों में से किसी रहा हुआ भी जीव क्षपकश्रेणिको प्रारंभ कर सकता है । उसके बाद मोहसागरोत्तारः - मिथ्यात्व मोह आदिके सागरको जो स्वयंभूरमण सागरसे भी अधिक वेगवाला है वह पार ऊतरता हैदूसरे पार जाता है। उसके बाद केवलाभिव्यक्तिः - केवलज्ञान व केवलदर्शन की जो जीवका गुण है-प्राप्ति होती है, जिसमें ज्ञानावरणीय आदि घातीकर्मके नष्ट हो जानेसे वह प्रगट होता है, और तब परमसुखलाभ:- टत्कृष्ट सुखकी प्राप्ति करता है अर्थात् उत्कृष्ट देवताओंके सुखसे भी अधिक मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है । उसके बाद किसी अन्य प्रकारके आनंदकी इच्छा नहीं रहती । उसे परम आनंद मिलता है । " यच्च कामसुख लोके, यच्च दिव्यं महासुखम् 1 वीतरागसुखस्येदं, अनन्तांशे न विद्यते ॥ २१४॥ " - इस लोकमें जितना भी कामसुख है और देवताओं संबंधी जो भी महासुख है वह सब मिलकर भी वीतरागके सुखके अनंतवें

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