Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

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Page 473
________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४३७ जाति नामकर्म, १२ आतप नामकर्म. १३ उद्योत नामकर्म, १४ साधारण नामकर्म, १५ स्थावर नामकर्म और १६ सूक्ष्म नामकर्म । ___इन सोलह प्रकृतियोको नाश करके- उपरोक्त आठ कषायोंका संपूर्ण क्षय करता है । तब यदि वह जीव पुरुषवेदी हो तो क्रमशः नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और हास्य, रति, अति, भीति, जुगुप्सा और गोक-इन छका नाश करता है । और तब पुरुषवेदका क्षय करता है। यदि वह जीव स्त्री हो तो पहले नपुंसकवेद, फिर पुरुषवेद तथा अंत नपुंसकवेदका क्षय करता है। उसके बाद क्रमशः क्रोध, मान, माया-तीनो संचलन कषायोका क्षय करके बादर लेोभका भी क्षय इसी गुणस्थानकमें करता है। फिर सूक्ष्म संपगय नामक गुणस्थानक पाकर सूक्ष्म लोभको खपाता है।इस प्रकार कषायोका सर्वथा नाश करके सकल मोह विकारोसे निवृत्त होकर क्षीणमोह नामक गुणस्थानकको प्राप्त करता है। वहां समुद्र तैर कर वाहर नीकले हुए या रणक्षेत्रमें जीत कर आये हुए पुरुषकी तरह मोह निग्रहमें निश्चय अध्यवसायके कारण हुआ होनेसे उस वारहवे गुणस्थानको मंतर्मुहर्त विश्राम लेकर उस गुणस्थानकके अंतिम समयसे पहलेवाले समयमें निद्रा व प्रचला नामक दो प्रकृतियोंको खपाता है और अंतिम समयमें ज्ञानावरणकी पाच तथा अंतरायकी पांच और दर्शनावरणकी बची हुई चार, कुल चौदह प्रकृतियोका क्षय करता है। उपरोक्त वात उस जीवके लिये है जिसने आयुष्य नहीं वांधा। जिसने आयुष्य बांध लिया है वह चार अनंतानुबधी और तीन दर्शनमोहनीय-ऐसो सात प्रकृतियोंका क्षय करके विश्राम लेता है और

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