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४३६ : धर्म पिन्दु
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इस चरमदेह में, अंतिम भवमें जीवके सम्यग्दर्शन आदि गुण पूर्ण परिषक होते हैं। वह अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत, व अप्रमतसंयत नामक चार गुणस्थानकमेंसे किसीमें भी स्थित होकर अपने मनको अतिशय वृद्धि पाते हुए तीव्र शुभ ध्यानके आधीन करता है तथा क्षपकश्रेणि पर चढने की इच्छा करता है। वह अपूर्वकरण गुणस्थानकको पाकर पहले चारों अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ नामक कपायका एक साथ क्षय करने लगता है । अनंतानुवधी कपायोंका बल हीन हो जाने पर तथा कुछ बाकी रहनेके समय मिध्यात्वका क्षय करने लगता है। तब बचे हुए कपायोंका तथा मिथ्यात्वका क्षय करता है। उनके क्षय होने पर क्रमशः सम्यकू ( मिश्रपुंज) और सम्यक्त्व ( शुद्वपुंज ) का क्षय करता है। पहले मिश्रपुंज, बाद में शुद्धपुंजको खपाठा है। उसके बाद जिसने आयुबंध नहीं किया वह जीव सकल मोहको नाश करनेमें समर्थ अनिवृत्तिकरण नामक नवमे गुणस्थानक पर चढ़ता है । उस पर रहा हुआ जीव अपने चित्तको प्रतिक्षण शुद्ध करता हुआ इस गुणस्थानकके कितने ही संख्यात भागके जाने पर अप्रत्याख्यानावरणीय और प्रत्याख्यानावरणीय नामक क्रोधादिक आठ कषायोका क्षय करना आरंभ करता है। उनका क्षय करते हुए शुभ अध्यवसाय द्वारा निम्न सोहल प्रकृतियोंका नाश करता है
१ निद्रानिद्रा, २ प्रचलाप्रचला, ३ क्षीणद्धि निद्रा (Somnambulism), ४ चरक गति, ५ नरकानुपूर्वी, ६ तिर्यग्गति, ७ तिर्यगानुपूर्वी, ८ एकेन्द्रिय, ९ वेइद्रिय, १० तेइन्द्रिय, ११ चौरिन्द्रिय
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