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धर्मफल देशना विधि : ४२७ मूलार्थ-चौदह महारत्नोंके भोगसे मनुष्यों में उत्तमोत्तम गिना जानेवाला चक्रवर्तीका पद भी धर्मकी लीलाका विलास मात्र है ॥४२॥
विवेचन-चौदह महारत्नोंके नाम-१ सेनापति, २ गृहपति, ३ पुरोहित, ४ हाथी, ५ घोडा, ६ वर्द्धकि (मिस्त्री), ७ स्त्री, ८ चक्र, ९ छत्र, १० चर्म (चामर), ११ मणि, १२ काकिणी, १३ खड्ग, १४ दंड-ये चौदह महारत्न हैं। सद्भोगाव-सुदर उपभोग, नृषुमनुष्योंमें, अनुत्तमम्-सबमें प्रधान, मुख्य, अनुपम, चक्रवर्तिपदम्चक्रधरकी पदवी, प्रोक्तम्-सिद्धांतमें कहा हुआ, प्रतिपादित किया हुआ, धर्महेलाविजृम्भितम्-धर्मकी लीलाके विलास समान ।
इन चौदह महारत्नोका सुख चक्रवर्ती भोगता है। उसका मुख अनुपम गिना जाता है। ऐसा सुख भी धर्मके कारण लीला मात्र है, सहजमें ही प्राप्त होता है। अतः धर्मकी आराधना ही सार है।
मुनिचन्द्रसरि विरचित धर्मविन्दुकी टीकाका धर्मफलविधि नामक
सातवां अध्याय समाप्त ।