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४३२: धर्मविन्दु करनेसे छूटकारा हो जाता है। पर तीर्थंकरका उत्कृष्ट फल कुछको ही होता है। यद्यपि चरमदेह तो सब केवली होनेवाले भव्य जीवोंको मिलती है। तत्राक्लिष्टमनुत्तरं विषयसौख्यं हीनभावविगमा, उदनतरा संपत्, प्रभूतोपकारकरणं, आशय-- विशुद्धिः, धर्मप्रधानता, अवन्ध्यक्रिया-- -
त्वमिति ॥३॥ (४८४) मूलार्थ-उस चरम देहमें क्लेशरहित अनुपम विषय सुख मिलता है। हीन भावका नाश होता है। अत्यंत महान संपत्ति प्राप्त होती है। बहुत उपकार किया जाता है अतः कारणकी शुद्धि या आशय-शुद्धि होती है। धर्म ही प्रधान विषय होता है। तथा सब क्रियायें सफल होती है ॥३॥
विवेचन-अक्लिट-सुंदर परिणामवाले, क्लेश रहित, अनुत्तमअन्य भोगोमे मुख्य सुख, विषयसौख्यं-शब्द आदि विषयोंका सुख, हीनभावविगमः-जाति, कुल, वैभव, उम्र, अवस्था आदि सबकी कमी या न्यूनतारूप जो हीनता होती है वह सब इसमें नहीं होती। अर्थात् इन सबकी या किसी एककी हीनता रहित, सब बातें अच्छी हीन नहीं), उदग्रतरा संपत-पूर्वभवोंसे अत्यत उच्च संपत्ति, जैसे-द्विपद, चतुष्पद आदि संपत्तिकी प्राप्ति है। प्रभूतोपकारकरण-अपना व परायेका अतिशय भला व काम करनेका मौका मिलना, इससे ही, आशयविशुद्धिः-चित्तकी निर्मलता, निर्मल भाव,