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४२४ : धर्मविन्दु
मूलार्थ--सब जीवोंको भी अनंत बार अवेयकमें उत्पत्ति हुई है-ऐसा सुनते हैं ॥३६॥
विवेचन- सर्वजीवानामेव व्यवहार राशिम रहे हुए सन जीवोंकी, अनन्तशः अनन्त वार, गैवेयकेपु-ग्रैवेयक विमानमें, उपपात-उत्पत्ति, श्रवणात-शास्त्रमे सुनते हैं।
शुभ परिणाम बिना बाह्य आचारसे सब जीव अनन्तबार वेयक तक देवस्थिति प्राप्त करनेमें समर्थ हुए है पर शुभ परिणाम विना मोक्ष नहीं मिलता। समग्रक्रियाऽभावे तदनवाप्तेरिति ॥३७॥ (४८०)
मूलार्थ-समस्त क्रियाके अमावमें नवमे ग्रैवेयककी प्राप्ति नहीं होता ॥३७॥
विवेचन--समग्रक्रियाऽभावे श्रमणके उचित पूर्ण अनुष्ठानके न होने पर, तदनवाप्ते नवमें ग्रैवेयकमें उत्पत्ति नहीं होती। ___परिपूर्ण साधुके आचार पालन विना नवमें अवेयककी प्राप्ति नहीं होती । अतः शुभ परिणाम बिना मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती। कहते है कि
" आणो हेणाणता, मुका गेवेज्जगेसु य सरीरा। न य तत्थाऽसंपुण्णाए साहुकिरियाइ उववाउत्ति ॥२१३॥
-सामान्यतः सब जीवोंने अवेयकमें अनंत शरीर पाये है या अनंत बार उत्पन्न हुए हैं और इस अवेयकमें असंपूर्ण क्रियासे उत्पत्ति नहीं होती। भतः संपूर्ण साधु क्रिया होने पर भी सम्यगदर्शन आदि