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४२२ : धर्मविन्दु
भत्त्यादि द्वारा तथा - अल्पबंध, श्रुते:-- 'असंज्ञी जीव प्रथम रक तक जाता है' ऐसे वचनोंसे सिद्धांत में ऐसा कहा है |
केवल बाह्य हिंसा, शरीर मात्र से की हुई असख्य जीवोंकी हिंसा करने पर भी असंत्री जीवोको पापकर्मका बंध अल्प होता है। जैसे महामत्स्यादि जो असंज्ञी है केवल पहली नाक में ही जाते हैं । (असंज्ञी - विना मनवाले प्राणी) ।
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शास्त्रमें कहा है कि - असज्ञी मत्स्य आदिका शरीर एक हजार योजन तकका होता है वे स्वयंभूरमण महासमुद्र में निरंतर डोलते हैं-घूमते हैं । वे पूर्वकोटि वर्षों तक जीवित रहते हैं और अनेक प्राणियोका सहार करते हैं तो भी पहली रत्नप्रभा पृथ्वी तक ही ( नग्मे) उत्पन्न होते हैं । वइ उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्येय भागके आयुष्यवाके और पहली नरक के चौथे प्रतरमें रहे हुए नारकी जीवोंके साथ जन्म प्राप्त करते हैं उससे आगे नहीं जाते। पर तदुल नामक मत्स्य बाहरसे हिंसा न कर सकने पर भी निमित्त विना बहुत तीव्र रौद्र ध्यान करनेवाले होने से अतर्मुहूर्त आयुष्य पाल कर भी सातवीं नरकको प्राप्त होता है जहा तैतीस सागरोपमकी आयु प्राप्त करता है यतः परिणाम ही प्रधान वैधका करण है ऐसा सिद्ध होता है । ऐसा होने पर भी दूसरी बात सिद्ध होती है - वह कहते है
एवं परिणाम एव शुभो मोक्षकारणमपीति ||३४|| (४७७)
भ्रूलार्थ - ऐसे ही शुभ परिणाम मोक्षका कारण है ||३४||