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३९८ : धर्मविन्दु
सदर्शनादिसंप्राप्ते, संतोषामृतयोगतः । भावैश्वर्यप्रधानत्वात्, तदासन्नत्वतस्तथा ||३५||
मूलार्थ - सम्यग्दर्शन आदिकी प्राप्तिसे, संतोषरूपी अमृ तको प्राप्त कर लेनेसे, भावरूपी ऐश्वर्यकी मुख्यतासे और मोक्षकी समीपतासे यहां ही मोक्ष कहा है ||३५||
विवेचन - सद्दर्शनादीनाम् - चिन्तामणि, कल्पवृक्ष और कामधेनु जैसी उपमाओको भी न्यून बतानेवाले सम्यग्ज्ञान, दर्शन ब चारित्र, संप्राप्त-लाभ, प्राप्ति-भावैश्वर्येण - क्षमा, मार्दव आदि भावोंका प्रधानत्वात् उत्तम या मुख्यता, तदासन्न - मोक्षकी समीपता ।
चितामणि, कामधेनु और कल्पवृक्ष आदि वस्तुओसे भी अधिक उत्तम सम्यग्दर्शन आदिको प्राप्त करके, सतोषरूपी अमृर्तको पाकर, सावरूपी ऐश्वर्यकी मुख्यता से और मोक्ष समीप होनेसे भाव यतिके लिये यह संमार, ही मोक्ष समान है।
उक्तं मासादिपर्यायवृद्ध्या द्वादशाभिः परम् | तेजः प्राप्नोति चारित्री, सर्वदेवेभ्य उत्तमम् ||३६|| मूलार्थ- मासादिक पर्यायकी वृद्धि करके बारह महिने तक चारित्रको धारण करनेवाला सर्व देवताओंसे उत्तम तेजउत्कृष्ट सुखको प्राप्त करता है ||३६|| -
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विवेचन- उक्तं- भगवतीसूत्र मे कहा हुआ, मासादिपर्यायवृद्ध्या-एक, दो, तीन आदि क्रमश १२ महिने तक पर्यायवृद्धिं करके, परं-उत्कृष्ट, तेजः-चित्तके सुख की प्राप्तिवाला, प्राप्नोति