Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

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Page 442
________________ ४० ४०६ : धर्मबिन्दु सेवा, सद्धर्म सुननेमें हर्ष और निरंतर सुख-इन सबकी प्राप्ति होना धर्मके परंपराफल हैं ।।८।। ..., विवेचन-तत्र- देवलोकमें, रूपसंपत्-- शरीरका संस्थान या बंधारण, सद्- सुंदर, स्थिति- पत्योपम व सागरोपमकी आयुष्यकी स्थिति, प्रभावः-निग्रह व अनुग्रह करनेकी शक्ति, सुखम्- चित्तको समाधि या गांनि, द्युति- शरीरके आभूषणादिकी काति व चमक, लेश्या- तेजोलश्या आदि, विशुद्ध इन्द्रियाणि- अपने अपने विषयका यथार्थ ज्ञान रखनेवाली निर्मल इन्द्रिये, अवधि - उनको अवधिज्ञानका होना, प्रकृष्टानि भोगसाधनानि- उकृष्ट भोगके साधन व सामग्रीयें, वे इस प्रकार बताते है-दिव्यः- अपनी कांति व तेज चमकसे अन्य तेजस्वी चक्रोको हरा देनेवाला, विमाननियहःविमानोंका समूह, मनोहराणि उद्यानानि- मनको प्रमोद देनेवाले अशोक, चंपा, पुन्नाग, नागकेशर आदि पुप्प व लताओसे भरे हुए उद्यान, रम्याः जलाशया:- खेल व क्रीडा , करने के योग्य बावडी, तालाब 4 सरोवर आदि जलाशय ( जलके स्थान ), कान्ताः अप्सरसः, अतिशय काति व रूपवाटी अप्सरा व देवीये, अतिनिपुणा. किङ्करा - शुद्ध विनय विधिको जाननेवाले चतुर सेवक या नोकरगण, प्रगल्भः नाट्यविधि:- तीर्थकर आदि महान भात्माओके चरित्रसे युक्त अभिनयवाले अनुपम व अति सुंदर नाटक, चतुरोदाराः भोगा:- मन व इंद्रियोको तुरंत आकर्षित करने में कुशल व उत्तम शब्द तथा श्रवण आदि इदियोके विषय, सदा चित्ताहादःनिरंतर मनकी प्रसन्नता, अनेकेषां- अपनेसे भिन्न अनेक देव आदिको

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