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धर्मफल देशना विधि - : ४०७
विविध व उनके योग्य आचार सहित चतुराईके गुण सहित दूसरोको, सुख हेतुत्वम् - संतोष देनेके निमित्त कारण, कुशलानुबन्ध - जिसका परिणाम निरंतर सुंदर व संच्छा आवे ऐसे कार्य करने में तत्पर, महाकल्याणेषु पूजायाः करणं - बडे कल्याणक याने श्रीतीर्थंकर देवके जन्म, महावत अंगीकार करने आदिके समय उनका स्नान, पुष्प चढाना, धूप करना आदि प्रकारसे उनकी पूजा करना, तीर्थकराणां सेवा - जिसने अपने प्रभाव द्वारा तीनो जगत् के सब जीवोंके मनको वश कर लिया है, और जिसने अमृतकी वर्षाके समान अपनी देशनासे भव्य प्राणियों के मनके तापका हरण कर लिया है
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ऐसे पुरुषरत्न तीर्थकरों की वंदना, नमस्कार, उपासना व पूजा द्वारा आराधना करना, सतः धर्मस्य श्रुतौ रतिः - पारमार्थिक श्रुत चारित्र लक्षणवाले धर्मको सुननेमें प्रेम रखनेवाले - स्वर्ग में उत्पन्न तुंबुरु आदि गन्धवों द्वारा प्रारंभ किये हुए पंचम स्वरके गीतको सुनने की प्रीतिसे अधिक संतोष उत्पन्न करनेवाले रागवाले, सदा सुखित्वम् - हमेशां सब समयोमें बाहरी सुखोसे जैसे गवन, आसन, वस्त्र, अलंकार आदि उत्पन्न गरीर सुखसे युक्त और मनको आनंद देनेवाले संयोगों से युक्त वे स्वर्गीय सुख भोगते है- ये सब देव या सुगतिमें प्राप्त होते हैं ।
देवलोकमें धर्मक प्रभावसे उत्पन्न होनेसे उपरोक्त 'सच विविध सुख भोगकी सामग्री प्राप्त होती हैं। ये सब धर्म के प्रभावसे प्राप्त होती हैं । -
तथा - तच्च्युतावपि विशिष्टे देशे विशिष्ट एव काले स्फीते महाकुले निष्कलङ्केऽन्वयेन उदग्रे सदा