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४१० : धर्मविन्दु, चितप्राप्तिः, हिताय सत्त्वसंघातस्य, परितोषकारी गुरूणां, संवद्धनो गुणान्तरस्य, निदर्शनं जनानां, अत्युदार आशया, असाधारणविषयाः, रहिताः संक्लेशेन, अपरोपतापिन, अमगुला
वसानाः ॥ ११ ॥ (४५९) मूलार्थ- और . मनुष्य जन्ममें उसे गुणके पक्षपात, असदाचारसे डर, पवित्र बुद्धि देनेवाले मित्रकी प्राप्ति, अच्छी कथाओंका श्रवण, मार्गको अनुकरण करनेका बोध, सब जगह (धर्म, अर्थ व काममें ) उचित वस्तुकी प्राप्ति होती है। वह उचित वस्तुको प्राप्ति प्राणी मात्रके हितके लिये, गुरुजनोंको संतोप देनेके लिये, दूसरे गुणों को बढानेवाली और अन्य लोगोंके लिये दृष्टांत लायक होती है । वह बहुत उदार आशययाला होता है और उसे असाधारण विषयोंकी प्राप्ति होती है, जो केशरहित, दूसरोंको कष्ट न देनेवाले और परिणामसे सुंदर होते हैं।
१ ९ . . . . . . . . . . विवेचन- गुणा:- शिष्ट पुरुषों द्वारा आचरण किये जानेवाले गुण- (नीचे श्लोक २१२ है) पक्षपात- वे गुण अपने में आवे ऐसा गुणानुराग, उससे ही पैदा होनेवाली, असदाचारभीरुता. चोरी, परदारगमन आदि अनाचारसे रोग, विष तथा अग्निकी तरह डरना, कल्याणमित्र- शुद्ध बुद्धि देनेवाला पुरुष जो धर्मके प्रति