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४१२: धर्मबिन्दु विपद्युः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां,
सतां केनोद्दिष्टं विपममसिधाराव्रतमिदम् ॥२१२॥" -~-दुर्जनोकी प्रार्थना न करना, थोडे धनवाले मित्र या स्वजनसे याचना नहीं करना, न्यायसे सुंदर निर्वाह करना, प्राणनाश हो तव भी मलिन काम नहीं करना, विपत्तिके समय भी उच्च भाव स्थिर रखना, और महान् पुरुषों के मार्गका अनुसरण-इस प्रकार तलवारकी धाराके समान व्रत सज्जनों के स्वभावमें ही हैं।
' से गुणोका पक्षपात, चोरी, मदिराभक्षण आदिसे दूर धर्मिष्ठ व सदाचारी मित्र, लुंदर चारित्रका सुनना या पढ़ना, मोक्ष मार्ग पर अनुसरण, सर्व उचित वस्तुओं का संयोग जो दूसरोंके हित, वडोके संतोष, गुणोंको बढानेवाले तथा अन्योको दृष्टांतरूप हो, साथ ही उदार आशय, और असाधारण विषयोंकी प्राप्ति जो आसक्ति रहित, दूसरोंको कष्ट न देनेवाली तथा पथ्य खानेके समान सुंदर परिणामवाले होते हैं इन सब वस्तुओंकी प्राप्ति उस धर्मिष्ठ जीवको प्राप्त होती है।
तथा-काले धर्मप्रतिपत्तिरिति ॥१२॥ (४५५) मूलार्थ-और योग्य समय पर धर्मको अंगीकार करे॥१२॥
विवेचन-काले-विषयसे विमुखता होनेके समयका लाभ ऊठाकर, धर्मप्रतिपत्तिः-सब सावध व्यापारका त्याग करनेरूप धर्मका अंगीकार करना । . .
वह धर्मिष्ठ पुरुष इस जीवनमें उपरोक्त विषयसुख प्राप्त करता