Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

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Page 455
________________ धर्मफल देशना विधि : ४१९ अभाव होता है । उससे वह प्रसंगोपात्त मिलता है और उनके लिये प्रयत्न नहीं करना पड़ता ॥२९॥ विवेचन-प्रभूतानि-प्रचुर, उदाराणि-पात उदार, बालताने, तस्य- पूर्वोक्त जीवके, भोगसाधनानि-नगर, परिवार, अंतपुर आदि 'उदारमुग्वसाधनान्ये' जो बादमें आता है उससे संवा । अपत्नोपननत्यान--बिना यत्नके बहुत तीन पुण्य के उदयस यह अपने आप खींच कर आता है, वह बिना पुरुप प्रयत्नके प्राप्त होता है। प्रायशिकत्वान-प्रसंगवश जैसे खेती करनेसे पाल उत्पन्न होता है उसी तर भोग साधन अपने माप लाते हैं। अभिनयाभावान-भरत आदिकी तरह अतिगाढ आसत्तिसे रहित, वह भी, कलिगताप्रवृत्ते अनीतिमार्ग छोटकर नीतिमार्गमें प्रवृत्ति करते है, शुमानुबन्धित्वात् -मोक्ष प्राप्तिके निमित्तरूप आर्यदेश, दृढसहनन (गरीरकी बनावट) आदि कुशल व शुभ कार्यके अनुबन्धसे, उदारसुखसाधनान्येव-उदार व अतिशय मुराके साधन-शरीर व चित्तको अहलाद देनेवाले पर इस लोक व परलोकमै दुःर न उत्पन्न करनेवाले, उनका तात्विक हेतु यह है-पन्धहेतुत्वामानबन्ध हेतुका अभाव होनेसे, कुगतिमें पडनेके निमित्तरूप जो अशुभ कर्मप्रकृतिके लक्षणवाले बन्धका हेतु, प्रक्रात भोग साधनौके अभावसे -इसका तात्पर्य यह कि बहुत उदार भोग साधनोकी बंध हेतुताके अभावमे उदार सुखके साधन ही उस पुरुपको प्राप्त होते है । बंध हेतुका भाव प्रयत्न विना मिलता है । ऐसे धर्मिष्ट पुरुषको अनेक सुखके साधन मिलते हैं। नगर,

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