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४०४ : धर्मबिन्दु
तथा - भावैर्श्वयवृद्धिरिति ॥४॥ (४४७) मूलार्थ - और भाव ऐश्वर्यकी वृद्धि होना || ४ || विवेचन-भावैश्वर्य - उदारता, परोपकार, पापकर्मकी निंदा या तिरस्कार आदि गुण ।
भावरूप समृद्धि, उदारता, परोपकार आदि सद्गुणोंकी प्राप्ति तथा वृद्धि होना ।
तथा - जनप्रियत्वमिति ||५|| (४४८ )
मूलार्थ - और लोकप्रिय होना ॥५॥
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विवेचन- जो व्यक्ति वस्तुतः धार्मिक है, सदाचारी है तो
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सब लोग उस पर प्रेम रखते हैं । वह सब लोगोके चित्तको आनंद ऊपजानेवाला, लोकप्रिय पुरुष हो जाता है ।
ये सब अनन्तर (समीपके) फल बताये अब परंपरा फल कहते हैपरम्परफलं तु सुगतिजन्मोत्तमस्थानपरम्परानिर्वाणावाप्तिरिति ॥६॥ (४४९)
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सूलार्थ - अच्छी गतिमं जन्म उत्तम स्थान की प्राप्ति तथा परंपरा से मोक्षकी प्राप्ति परंपरा फल है ||६||
विवेचन धर्मका परंपरा फल तो देवगति व मनुष्यगतिमें जन्म लेना है और ऐसे उत्तम स्थानकी परंपरा से निर्वाण प्राप्ति है । स्वयं शास्त्रकार इस सूत्र का विवेचन आगे करते है - सुगतिर्विशिष्टदेवस्थानमिति ||७|| (४५०)