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धर्मफल देशना विधि : ४०३ विवेचन-जिस प्रकार कल्पवृक्ष फल देता है उसी भांति भाव धर्मरूप यह कल्पवृक्ष भी फल देता है । एक फल उत्कृष्ट स्वर्ग सुख और दूसरा उत्तमोत्तम मोक्ष सुख है । ऐसा सुधर्मस्वामी आदि महान् मुनिराज कहते हैं। इत्युक्तो धर्मः, सांप्रतमस्य फलमनु
वर्णयिष्यामः ॥१॥ (४४४), मूलार्थ-इस प्रकार गृहस्थ धर्म व यतिधर्म कहा अब उसके फलको वर्णन करते हैं ||१|| द्विविधं फलम्-अनन्तर-परम्परभेदादिति ॥२॥(४४५)
मूलार्थ-अनन्तर व परंपरा भेदसे फल दो प्रकारका है ।
विवेचन-धर्मका फल दो प्रकारका है—एक अनन्तर कार्यके साथ ही मिलनेवाला और क्रमा मिलनेवाला अंतिम फल-परंपरा फल-अर्थात् समीपका व दूरका-ऐसे दो फल हैं।'
तत्रानन्तरफलमुपप्लवहास इति ॥३।(४४६)
मृलार्थ-उसका' अनन्तर फल तो रागादि उपद्रवका नाश है || - - -
विवेचन-तत्र-उन दोनों फलोमें, उपप्लवहास-रागादि दोपके उदय होनेके उपद्रवका सब प्रकारसे नाश । ___ धर्मके दो फल हैं उसमें से पहले अनन्तर फल बताते हैं। अनन्तर फलमें तुरंतका फल राग अ,दि दोषोका सर्वथा नाग हो जाना है।