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३९६ : धर्मविन्दु तथा सद्भाववृद्धः फलोत्कर्षसाधना
दिति ॥७५॥ (४४२) स्मूलार्थ-और शुभ भावकी वृद्धि मोक्षरूप महाफलको देनेवाली है ||७५॥
विवेचन-सद्भाव-शुभ परिणाम, फलोत्कर्षसाधनाद-महान् फलरूप मोनको देनेवाली-सम्यकदर्शनसे शुद्ध भावकी वृद्धि होती है
और शुद्ध भावकी वृद्धिसे मोक्षरूप सर्वोच्च फल मिल सकता है अतः सम्यग्दर्शन ज्यादा महत्त्वका है। मिथ्यात्व आदिसे कभी भी मोक्षफल नहीं मिल सकला । अतः मिव्यात्व आदिसे सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ है। .
उपप्लवचिगमेन तथावभासना
दितीति ॥७६॥ (४४३) .. मूलार्थ-राग-द्वेपादि उपद्रवका नाश होनेसे वैसा बोध होता है ।।७६॥
विवेचन-उपप्लबविगमेन-राग-द्वेष आदि आंतरिक उपद्रवोके अंत होनेसे, तथावभासनात-उस प्रकारका ज्ञान, अनुचित कार्यमें प्रवृत्ति न करना ही ठीक है-ऐसा ज्ञान ।। - सन्यग्दर्शनसे शुद्ध भ व होते हैं। शुद्धभावसे राग-द्वेष आदि उपद्रव नष्ट होते हैं। उससे भाव यतिको सारा निर्मल प्रकाश मिलता है। उससे अनुचित कार्यमें प्रवृत्ति न करना ठीक है ऐसा विश्वास होता है । अत सम्यगदर्शन महत्त्वका है। मत. पूर्वोक्त 'असाधु भाव संयम पालनमें असमर्थ है। केवल दृष्टान्त मात्र है।