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३९४॥ धर्मविन्दु प्रवृत्ति करनेमें असमर्थ है और जो भावयति नहीं वह योग्य प्रवृत्ति करने में असमर्थ है । ७०॥
विवेचन- ताकुशलाशय- चारित्रवृद्धिका हेतु रखनेवाला, 'शुद्ध भाव तथा आशंर्यवाला।
जो भावयति या परमार्थतः साधु है वह चारित्रकी वृद्धिके शुद्ध भाव रखता है, अतः वह कदापि अनाचार सेवन नहीं कर सकता । जो भावयति नहीं है। केवल द्रव्ययति है वह भावसे संयमकी प्रवृत्ति करनेमें अशक्त है । उसी प्रकार उत्तम साधुके योग्य प्रवृत्ति करनेके लिये उपदेशकी अपेक्षा नहीं है।
इति निदर्शनमात्रमिति ॥ ७१ ॥ (४३८) मूलार्थ- यह समानता केवल दृष्टांत मात्र कही है ।७१॥
विवेचन- 'द्रव्ययति शुद्ध संयम पालनेमें अशक्त है। वह केवल दृष्टांत मात्रके रूपमें कहा है इस परसे यह नहीं समझना कि द्रव्ययति संयमका पालन ही नहीं कर सकता ।
न सर्वसाधर्म्ययोगेनेति ॥ ७२ ।। (४३९) - मूलार्थ- उपरोक्त दृष्टांत सर्व प्रकारसे सादृश्य योगका नहीं है ॥७२॥
"विवेचन- इस दृष्टांतमें जो समानता-सादृश्यता कही है वह सब 'प्रकारसे "सर्वाशसे नहीं है केवल कुछ अंशोमें ही समानता है।"