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३९२ : धर्मपिन्दु ।
जिमको चारित्र ग्रहण करनेके परिणाम उत्पन्न हुए हैं उनके चारित्र परिणामके साधनरूप जो अनुष्ठान है उनको बतानेवाला यह उपदेश है । अतः उपदेश देना उत्तम है। उपदेश देनेका कारण यह है कि कर्मकी विचित्रताके कारण चारित्रके परिणाम पतनशील हैं। कर्मकी विचित्रतासे सब कुछ हो सकता है। कहा है कि
"कम्माई नूर्ण घणचिकणाइ कढिणाई वजसाराई । णाणड्ढ्यपि पुरिलं, पंथाओ उप्पहं नैति" ॥२०९॥
-गाढ, चिकने, कठिन तथा वज्रसमान कर्म ज्ञानमार्गमें स्थिर पुरुषको भी उन्मार्गमें ले जानेमें समर्थ हैं।
अतः कर्मवश कभी किसीका चरित्रभाव समाप्त हो जाय तब भी गुरुकुल वास आदि साधनोंसे वह चारित्रमावमें स्थिर रह सकेगा । अतः उपदेश हितकारी है। तत्संरक्षणानुष्ठानविषयश्च चक्रादिप्रवृत्यवसान
भ्रमाधानज्ञातादिति ।। ६७ ॥ (४३१) मूलार्थ- चारित्र परिमाणकी रक्षा के लिये अनुष्ठानवाला उपदेश इस प्रकार है। जैसे चक्र आदिकी गति मंद होने पर दंड आदिसे गति तीव्र की जाती है ।।६७॥ .
विवेचन- चारित्र भावकी जो उत्पत्ति हुई हैं उसका रक्षण करनेके लिये अनुष्ठान करना आवश्यक है और उन अनुष्ठानोको वतानेवाला उपदेश बहुत लाभप्रद है। जैसे"ज्जेजा संगग्गिं, पासत्थाई हिं पावमित्तेहि । कुजा उ अप्पमत्तो, सुद्धचरित्तेहि व धीरेहि ॥२०॥"