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३९० : धर्मपिन्दु , मूलार्थ-चारित्रके परिणामकी प्रसन्नता व गम्भीरतासे ।
विवेचन-जैसे शरद ऋतुमें सरोवरका जल निर्मल व प्रसन्न दीखता है वैसे जिसको वस्तुतः चारित्रके परिणाम. उत्पन्न हुए हैं उसका हृदय वैसा ही निर्मल होगा। उसका मन समुद्रके मध्य भागके जैसा गंभीर होगा। ऐसा प्रसन्न व गंभीर पुरुष कभी अनुचित अनुष्ठान न करेगा या अकाल उत्सुकता न दिखायेगा।
हितावहत्वादिति ॥६५॥ (४३२) मूलार्थ चारित्रका परिणाम हितकारी है ॥६५॥
विवेचन-जिसमे शुद्ध चारित्रके लिये वस्तुतः भावना उत्पन्न हुई है उसका कार्य केवल हितकारी ही होगा। वह कभी भी अयोग्य समयमें उसुकतासे चारित्र ग्रहण करनेको त पर नहीं होगा। ___यह चारित्र परिणामकी परिणति ( उत्पत्ति ) हो जाने पर वह प्रसन्न, गंभीर तथा हितकारी होता है तो चारित्रके भावकी प्राप्तिके बाद साधुको बार बार विभिन्न शब्दोंसे उपदेश क्यो दिया जाता है । जैसे
"गुरुकुलवासो गुरुततया य, उचियविणयस्ल करण च। वसहीपमजणाइसु, जत्तो तह कालविक्खाए" ॥२०६॥ "अनिगृहणा वलम्मी, सवत्थ पवत्तणं च सत्तीए । नियलाभचिंतणं सइ, अणुग्गहो मित्ति गुरुवयणे" ॥२०७॥ "संवरनिच्छिदत्तं, छज्जीवरक्खणासुपरिसुद्ध। विहिसज्झाओ मरणादवेक्षणं जइजणुवएसो" ॥२८॥ -~~-मुनि गुरुकुलमें वास करे, गुरुकी अधीनतामें रहे तथा