________________
३८८ : धर्मपिन्टु जैसे गोविंद वाचक, सुन्दरानन्द, आर्य सुहरित आदिने किसी एक पुरुष, भवदेव तथा करोटक गणि आदिको दीक्षा दी है। उन्होंने जब दीक्षा ली तब केवल प्रवृत्ति करनेके समय वे तात्त्विक उपयोग रहित थे । इस संबंधमे केवल दीक्षा लेना हीउनकी योग्यता थी। ऐसा शाखमें उल्लेख है।
ऐसी दीक्षामे प्रवृत्ति मात्र सद्भावयुक्त दीक्षाकी प्राप्तिकालका कारण कैसे हैं ? उत्तर देते हैंतस्यापि तथा पारस्पयंसाघनत्वमिति॥६॥ (१२८)
मूलार्थ-वह प्रवृत्तिमात्र भी (तथा भव वैराग्य आदिसे) उस परंपराका साधन है ॥६॥
निवेचन-तथा पारण-उस प्रकारकी परंपरासे, साधनत्वंसाधनगाव है।
प्रवृत्ति मात्र भी उस प्रकारकी परंपरासे दीक्षाका साधन या कारण है। भव वैराग्य आदि तो मुख्य कारण है ही। कई पुरुष उपरोक्त भोगामिलापासे अर्थात् दीक्षासे दैवी व मानवी सुख प्राप्त होगे, ऐसा सुननेसे दीक्षित हुए। पर द्रव्य दीक्षाके अंगीकार करनेके बाद अभ्यास--सतत दीक्षा पालनेसे भोगामिलापाको त्याग करके यदि अतितीव्र चारिन मोहनीय कर्मका उदय न हो तो, भावदीक्षा अंगीकार करनेके लायक बन जाते है । जैसे गोविंद वाचक मादि । अतः द्रव्य दीक्षा (प्रवृत्तिमात्र) भी भावदीक्षाका परंपरासे कारण है। तब तो प्रवृत्ति मानसे योग्यता हो गई ? कहते हैं... यतिधर्माधिकारम्बायमिति प्रतिषेध
- इति ॥६२॥ (१९२) .