________________
यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३९३ ! -अप्रमत्त पुरुष पापके मित्र जैसे असंयत पुरुषोंके संसर्गका त्याग करे और शुद्ध चारित्रवान धीर पुरुषोंका ससर्ग करे। :
जैसे कुम्हारका चक्र घूमता है और उसकी गति मंद पड जाने पर कुम्हार दंड द्वारा उसे तीन करता है ऐसे ही उपरोक्त प्रकारके उपदेशोसे चारित्र परिणामकी आई हुई मन्दताको हटा कर तीनता उत्पन्न की जाती है।
उपदेशकी निष्फलता कब होती है ? कहते हैं. माध्यस्थ्ये तद्वैफल्यमेवेति ।। ६८ ॥ (४३५)
मूलार्थ- मध्यस्थतामें उपदेशकी निष्फलता है ।।६८॥.
विवेचन- अप्रवृत्ति और प्रवृत्तिकी मंदता इन दोनोंके बीचकी मध्यस्थता हो अर्थात् जब चास्त्रि परिणाममें तीव्रता हो तब उपदेश वृथा है अर्थात् जिस पुरुषको चारित्रका तीव्र भाव है उसे उपदेशकी जरूरत नहीं है। ।
। । स्वयं भ्रमणसिद्धेरिति ॥ ६९ ॥ (१३६) मूलार्थ- अपने आप ही भ्रमणकी सिद्धि है ॥६९॥
विवेचन- जैसे चक्र जब अपने आप चलता है तो उसे चलाने की आवश्यकता नहीं होती वैसे ही जब आत्मामें स्वयं तीन चारित्र भाव हैं तो उपदेशकी जरूरत नहीं। । । भावयतिहिं तथा कुशलाशयत्वादशक्तोऽसमजसप्रवृत्तावितरस्यामिवेतर इति ॥७०॥ (४३७) मूलार्थ- भावयति कुशल आशयवाला होनेसे अयोग्य