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यतिधर्म विशेष देशना विधिः ३८३ • प्रायोऽतिचारासंभवादिति ॥५१॥ (४१८) ।
मूलार्थ-प्रायः उचित अनुष्ठानमें अतिचार संभव नहीं है। (अतः उचित अनुष्ठान मुख्य है) ॥५१॥ ..
‘विवेचन-जो पुरुष अपना उचित कर्म करनेको तत्पर होता है उसमें उसे प्रायः अतिचार लगना संभव नहीं है। कर्म उचित होनेसे उसमें वह अतिचार लगने नहीं देता । प्रायः ऐसा ही होता है पर कमी कमी उस प्रकारके अनाभोग या अविचारके दोषसे अर्थवा न तूटनेवाले निकाचित क्लिष्ट कर्मोंके उदयसे कभी किसी पुरुषको नो ऐसे सन्मार्ग पर जाता है अतिचार हो सकता है वह उसी प्रकार है जैसे कि किसी पथिकको राहमें कांटा लगना, ज्वर आना अथवा दिशाम होना संभव है। इस तरह कभी अतिचार लगसकता है पर अधिकांशत. उचित अनुष्ठान करनेवालेको अतिचारका संभव कम हैं। अतिचार न लगे-वह किस प्रकार ! कहते हैं---
यथाशक्ति प्रवृत्तेरिति ।।५२।। (४१९), मूलार्थ-यथाशक्ति प्रवृत्ति करनेसे ॥५॥ ‘विवेचन-सब कार्योंमें जितना सामर्थ्य हो, जितनी शक्ति हो, उसी प्रकार प्रवृत्ति होती है। अतः उचित अनुष्ठानमें फिर मतिचार लाना संभव नहीं रहता । जितना वह कर सकता है उतना ही करता है और वह कर लेता है. अतः अतिचार नहीं लगता।:
संद्रावप्रतिबन्धादिति ॥५३॥(१२०),