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यतिधर्म विशेष देशना विधि:: ३८१६ ऐसा शास्त्रोक्त उपदेश है। इस आज्ञाके अनुसार चलनेसे भक्ति होती है अतः, भावपूजा, व द्रव्यपुजा दोनों ही प्रभुभक्तिके मार्ग है क्योकि जब द्रव्यस्तव-उपदेशपालत समझा है.तब भावस्तव तो है ही अतः निरंतर प्रभुपूजा करनी चाहिये। ऐसा क्यों कहते हैं........ . - , भावस्तवाङ्गतया; विधानादितिः॥४७॥ (४१४)..
मूलार्थ-द्रव्यस्तव भावस्तवका अंग है ऐसा कहा, हुआ. है ॥४७॥
विवेचन-द्रव्यस्तवका विधान शालमें शुद्ध यतिधर्मके कारण है। विषयतृष्णा आदि कारणोसेसाधुधर्मरूप मंदिरके शिखर पर चढ़ने में असमर्थ तथा धर्मकार्य करनेकी इच्छा, रखनेवाले प्राणीके, लियो महान सावध कर्मसे निवृत्ति पानेका दूसरा मार्ग न होनेसे अरिहंत भगवानने शुभ आरंभके रूपमें द्रव्यस्तवका उपदेश किया है। जैसे- -- 'जिनभवनं जिनविम्वं, जिनमतं च यः कुर्यात __तस्य नरामरशिवसुखफलानि करपलवस्थापि ॥२०३॥..
जो पुरुध जिनमदिर, जिनविंच, जिनपूजा-और-जिनमतको करता है, उसको कराता है या उसकी पूजा-भक्ति करता है, उस पुरुषके हाथमें नर, देवता व मोक्षके संब सुख आ जाते हैं, .....
इस प्रकार द्रव्युत्तव-भी भगवानके उपदेशके, पालनुरूप है। माज्ञापालतः भक्ति है--अतः दन्यस्तव भी भक्ति है ।:- भगवानको चित्तमें रखनेका फल कहते हैं