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३८२६ धर्मनि । हदि स्थिते च भगवति क्लिष्टकर्म, विगम इति ॥४८॥ (४१५) ॥ . ' मूलार्थ-भगवान हृदयमें रहनेसे ‘लिष्ट कर्मोंका चय होता है ॥४८॥
विवचन-लिष्ट कर्म वे है जो संसारमें रहनेके लिये आत्माको बाध्य करते हैं। उनका नाश भगवान के स्मरणसे होता है । 'भशुम अनुबंधी मिथ्यात्व मोहनीय आदि कर्म हैं । ऐसा किस तरहसे कहा ! (कैसे कर्म क्षय होते हैं ।) कहते हैं, जलाललवदनयोविरोधादिति ॥४९॥ - (४१६) । मूलाथे-सगवानका स्मरण वह क्लिष्ट, कर्मका जलवा अग्निकी तरह परस्पर विरोधी है ॥४९॥ .. 31 Mis. १. विवेचन जिस प्रकार जलके 'साथ' अग्नि नहीं रह सक्रती, जहाँ जल होगा वहां अग्नि समाप्त हो जायगी। उसी प्रकार मंगवानके चितमें रहने से क्लिष्ट कर्मोंका विरोध होनेसे स्वतः नाश हो जाता है। जब भगवान चित्तमें होंगे क्लिष्ट कर्म नहीं रहेंगे। इत्युचितानुष्ठानमेव सर्वत्र प्रधानमिति ॥५०॥(४१७)
मला कारचित
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मुख्य है ॥५०॥"
. अनुष्ठान ही सब जगह
विवेचन-इसका भावार्थ पहले सूत्र २६ (३९३) में भा चुका है। उचित अनुष्ठान मुख्यं है यह कैसे कहा जा सकता है । कहते हैं