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२९२ : धर्मविन्दु
किसी भी वस्तुमें आसक्ति न रखें तथा शत्रु हो या मित्र सबके प्रति एक ही वृत्ति रखे, समभाव रखे उसे 'शील' कहते हैं। शील तो अपने परिणामसे साध्य हे फिर क्षेत्रादि शुद्धिसे उसका आरोपण कैसे होता है ? उत्तरमे कहते हैंअतोऽनुष्ठानात् तद्भावसंभव इति ||४२|| (२६८)
मूलार्थ इस अनुष्ठानसे शीलकी उत्पत्ति संभव है ।।४२॥ विवेचन-अनुष्ठानात्- शीलक आरोपण करनेके कार्यसे, तद्भाव-शालका परिणाम उत्पन्न होना, संभव-पेदा होना शक्य है।
इस अनुष्टानसे क्षेत्रादि शुद्धि करके शीलके आरोपण करनेसे शीलके परिणामकी हृदयमें उत्पत्ति होना संभव होती है तथा जिसमें शील विद्यमान हो उसमें उसको स्थिर करते हैं या उसमें शीलकी वृद्धि होती है। द्रव्यक्रिया भावक्रियाकी कारणभूत है। अच्छे कार्यसे अच्छी वृत्ति पैदा होती है और अच्छी वृत्ति हो तो उसकी वृद्धि होती है।
तथा-तपोयोगकारणं चेतिती॥४३॥ (२६९) , मूलार्थ-और शिष्यके पास तपोयोग कराना चाहिये ॥४३॥
विवेचन-तपोयोग- गुरुपरंपरासे प्राप्त आबिल आदि तपं, कारण- कराना।
विविवत् दीक्षा लिये हुए शिष्यके पास गुरुपरंपरासे प्राप्त आंबिल आदि तप कराना चाहिये। तपसे इन्द्रिये मनके स्वाधीन होती है तथा इच्छानिरोध होता है।