________________
यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३६३ मृलार्थ-और जो पूर्वोक्त गुणवाला हो परन्तु अन्यों पर उपकार करनेकी शक्ति रहित हो वह भी निरपेक्ष यतिधर्मके. योग्य है ॥१२॥
विवेचन-तत्कल्पस्य-निरपेक्ष यतिधर्मके पालनके समर्थ पुरुषके समान दूसरा भी, परं-केवल, परार्थलब्धिविकलस्य-उस प्रकारके अंतराय आदि दोषके कारण व कर्मके कारण परतन्त्र होनेसे परोपकार करनेमें-साधु व शिप्य आदि करनेमें असमर्थ हो जो साधु शिष्य आदि न कर सके।
जो साधु निरपेक्ष यतिधर्म पाल सकता है उसके समान गुणवाला जो ऊपर कहे जा चुके हैं दूसरा भी कोई व्यक्ति हो पर किसी अंतराय कर्मके कारण परोपकार न कर सके, शिष्य-प्रशिष्य न बना सके वह भी निरपेक्ष यतिधर्मका पालन करे। जो परोपकार करनेमेअसमर्थ हो वह अपना हित तो साधे यह भावार्थ है। ये दो विभाग करनेका हेतु शास्त्रकार बताते हैंउचितानुष्ठानं हि प्रधानं कर्मक्षयकारण
मिति ॥१३॥ (३८०) मूलार्थ-योग्य अनुष्ठान कर्मक्षय करनेका मुख्य कारण है।
विवेचन-जिसके लिये जो आचरण श्रेष्ठ है या उचित है वह कर्मके क्षय करनेमें मुख्य कारण है जो जिसके लायक हो वह उसका उचित अनुष्ठान है और उचित प्रवृत्तिमे प्रयास करनेसे विजय होती है अत उचित अनुष्ठान कर्मक्षयका प्रधान कारण है।