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यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३६७ विवेचन-संभवति- होने पर, तद्वतोऽपि- अज्ञानतासे अनुचित मार्गमें प्रवृत्ति हो तो भी।
जो पुरुष केवल अज्ञानतासे अपने सामर्थ्यको न समझकर अथवा अन्य कारणसे अनुचित अनुष्टानमें प्रवृत्ति करे तो भी उसे सर्व विरतिरूप चारित्र संभव है। उचित प्रवृत्तिवालेको तो चारित्र संभव ही है। विशेष कहते हैंअनभिनिवेशवास्तु तद्युक्तः खल्वतत्वे ॥२०॥ (३८७)
मूलार्थ-चारित्रवान पुरुष अतत्वमें आग्रहरहित होता है।
विवेचन-अनभिनिवेशवान- निराग्रही, खलु- निश्चित ही, अतचे- प्रवचनद्वारा निषिद्ध ।
जो कार्य प्रवचनद्वारा निषिद्ध है ऐसे कार्यको निराग्रही पुरुष युक्त है ऐसा नहीं कहेगा। अज्ञानतासे अनुचित मार्गमें भी प्रवृत्ति करे पर चारित्रवान् पुरुष ऐसे अतत्त्वको माननेका दुराग्रह नहीं करेगा अथवा दुराग्रह रहित चारित्रवान् उस अनुचित मार्गको निश्चय ही योग्य न कहेगा।
यह कैसे कहा है ? उत्तर देते हैं___ स्वस्वभावतोत्कर्षादिति ॥२१॥ (३८८)
मूलार्थ-अपने स्वभावकी उत्कृष्टतासे ॥२१॥
विवेचन-स्वस्य- उपाधि रहित होनेसे अपने खुदके, स्वभावस्य- भा.मतत्वके, उत्कर्षाद- उत्कृष्टताके कारण-वृद्धि होनेसे(वह अतत्त्वको योग्य नहीं कहता) ॥