________________
३७२ : धर्मपिन्द्र - भांति विस्तारवाला चिन्ताज्ञान है। सर्वज्ञकी आज्ञाको ग्रहण करनेवाला; विधि, द्रव्य, दाता व पात्रके प्रति आदरवाला, और, उच्च, तात्पर्य सहित जो ज्ञान है वह भावताज्ञान है । वह अशुद्ध सद्रत्नके समान कातिवाला है। जैसे अच्छा रत्न साफ न किया हुआ. हो तब भी अधिक कांतिवान है वैसे ही अशुद्ध रख्न समान भन्यः , जीवमें रहा हुआ यह ज्ञान अन्योसे अधिक प्रकाश देनेवाला है। ___ ज्ञान प्राप्तिके तीन साधन है-श्रवण, मनन व निदिध्यासन । श्रवणका ज्ञान श्रुतज्ञान है जो बीजकी तरह जितना हो उतना ही रहता है। मननसे ज्ञान बढ़ता है और वह चिन्ताज्ञान है। पूर्ण
आत्मा जब एक ध्यान होकर उधर भावना व निदिध्यासन करे तब पूर्ण सामर्थ्य प्रगट होनेवाले भावनाज्ञानसे, ही पूर्ण रहस्य, प्राप्त होता है, अतः भावनाके अनुसार जो विशेष ज्ञान होता है वही... वस्तुतः ज्ञान कहा जा सकता है। ...
। 'पहले श्रवण होता है वह श्रुतज्ञान, फिर। दिमागमें विचार व तर्क आदि होता है वह चिंताज्ञान तथा फिर वह. हृदयमें उतरता है तब भावनाज्ञान होता है । जिस ज्ञानको हृदय अनुभवसे स्वीकार करता है वह भावनाज्ञान ही वस्तुतः 'ज्ञान हैं, वही श्रद्धा है।
-
न
न हि श्रुतमच्या प्रज्ञया, भावन
One
+ मूलार्थ-श्रुतमय, धुद्धिसे जाना, हुआ ज्ञान नहीं, परत भावनासे देखा व जाना हुआ जाना है, ॥३१॥