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यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३७३ विवेचन- जो प्रथम ज्ञानरूप बुद्धिद्वारा देखा व जाना या श्रुतमय प्राज्ञद्वारा देखा या जाना गया वह वस्तुतः ज्ञान नहीं है पर भावनाज्ञान द्वारा जो सामान्य प्रकारसे देखी जाय तथा विशेष प्रकारसे 'देखी जाय तथा विशेष प्रकारसे जानी जावे वे वस्तु जानी हुई है, अतः भावना द्वारा देखा व जाना ही वस्तुतः ज्ञान है । कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार भावना वस्तुका ज्ञान होता है वैसा केवल श्रुतज्ञानसे नहीं होता। जो सुना, मनन किया किया तथा भावनासे जाना वही यथार्थ ज्ञान है।
___ उपरार्गमात्रत्वादिति ॥३२॥ (३९९) - मूलार्थ-क्योंकि श्रुतज्ञान केवल बाह्य ज्ञान है ॥३२॥
टीकार्थ-श्रुत्तज्ञान केवल उपरसे रंगे हुए समान है जैसे स्फटिक मणिके पास किसी भी रंगका पुष्प रख देनेसे वह उस रंगका दीखता है पर वस्तुत. वह उसका रंग नहीं अतः वह उपरी रंग है । उसी प्रकार श्रुतज्ञानसे उपरका ज्ञान होता है पर भाव परिणति नहीं होती। अत 'श्रुतज्ञानसे जाना हुआ नहीं जानने समान है, भावनाज्ञान ही वस्तुतः ज्ञान है । श्रुतंज्ञान केवल ऊपरी ज्ञान है ? यह कैसे हो सकता है। कहते हैं"दृष्टवंदपायेभ्योऽनिवृत्तरिति ॥३३॥ (४००)
मूलार्थ-दृष्ट अनर्थसे व्यक्ति निवृत्ति नहीं पातां ॥३३॥ - विवेचन जो मनुष्य यथार्थ रीतिसे अनेको देखे व जाने, 'भावनाज्ञानसे उसे अनर्थ समझे वह उसे छोडता है पर श्रुतमय