________________
३७४ : धर्मविन्दु प्रज्ञासे देखे व जाने हुए अनर्थको वह नहीं छोड़ता है। भावनासे -जाना हुआ अनर्थ छूट जाता है केवल दृष्ट अनर्थ नहीं छूटता । अतः
श्रुतज्ञान बाहरी ज्ञान है तथा भावना ज्ञान ही वस्तुतः ज्ञान है, भावना ज्ञानसे जैसी निवृत्ति होती है वैसी दृष्ट या श्रुतज्ञानसे नहीं, अतः श्रुत ऊपरी है । जो यथार्थ ज्ञान हो तो प्रवृत्ति भी वैसी ही होती है अत. अनर्थ छूटता है । भावना ज्ञान होने पर भी अनर्थसे निवृत्ति नहीं होती तब ? उत्तर देते हैं- . .
एतत्सूले च हिताहितयोः प्रवृत्ति .
निवृत्तिरिति ॥३४॥ (४०१) , मूलार्थ-हितमें प्रवृत्ति व अहितसे निवृत्ति-इसका मूल ही भावनाज्ञान है ॥३४॥
विवेचन-जिस बुद्धिमान पुरुषको भावनाज्ञान हुआ है वही हित-अहितमें भेद कर सकता है तथा वहीं हितमें प्रवृत्ति तथा अहितसे निवृत्ति करेगा । हित व अहितके भेद करनेमें मूलभूत भावनाज्ञान ही है, दूसरा ज्ञान नहीं।
अत एव भावनादृष्टज्ञाताद् विपर्यया- .
योग इति । ॥३५।। (४०२) मूलार्थ-इस कारणसे ही भावज्ञान. द्वारा--देखे जाने व जानने पर विपरीत प्रवृत्ति नहीं होती ॥३५॥ .. , . विवेचन-अत एव-हित, अहितमे प्रवृत्ति व निवृत्तिके मूलमें भावनाज्ञान ही है। भावनादृष्टज्ञातान-भावना द्वारा देखी व