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यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३६५ इच्छाके कर्मक्षय जैसा होता है-जो निर्जरा मुक्तिफल-देनेवाली नहीं, विपर्ययाव-उत्कृष्ट विवेकके अभाव में रत्नत्रयकी आराधना नहीं होती है अतः उचित अनुष्ठानसे भिन्न अन्य अनुष्ठान अनुष्ठान ही नहीं । इसी भावको आगे स्पष्ट करते हैं--- निर्वाणफलमत्र तत्त्वतोऽनुष्टानमिति ॥१६॥ (३८३)
मूलार्थ-जिस अनुष्ठानका फल मोक्ष है वही तत्वतः अनुष्ठान है ॥१६॥
विवेचन-निर्वाणफलं-मुक्ति देनेवाला, अत्र-जिनवचनमें, तत्त्वतः-वस्तुत., अनुष्ठान-सम्यग दर्शन आदिके आराधनाके रूपमें जो कहा जाता है।
सम्यग्दर्शन आदि जो अनुष्ठान केवल मेक्ष फलकी आशासे किया जाय वही जैनशास्त्र के अनुसार यथार्थ अनुष्ठान हैं। मोक्षके फलके बिना अन्य कोई फलकी आगासे किया जानेवाला अनुष्ठान नहीं। स्वर्गादि पदार्थकी प्राप्ति होने पर भी साध्यबिंदु मोम होनेसे वह अनुष्ठान है। मोक्षको ले जानेवाली क्रिया ही अनुष्ठान है। . ऐसा कहनेसे क्या ' शास्त्रकार उत्तर देते है
न चासदभिनिवेशवत् तदिति ॥१७॥ (३८४) मूलार्थ-वह अनुष्ठान मिथ्याभिनिवेशवालानहीं होता ॥१७॥ -- विवेचन न च असद् अभिनिवेशवत्-मिथ्या आग्रहयुक्त नहीं होता, तत्-निर्वाण फल देनेवाला अनुष्ठान । -
' जो अनुष्ठान मोक्षफल देनेवाला है वह मिथ्या आग्रहवाला नहीं होता। मिथ्या आग्रहवाला बडा अनुष्ठान भी मोक्षफल रोकनेवाला :