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३६२ : धर्मबिन्दु । भली भांति तोलकर, जांचकर उचित समयमें अर्थात् तिथि, वार, नक्षत्र, योग और लमकी शुद्धि देकर, आज्ञाप्रामाण्यत:-इस विषयमे आज्ञा ही प्रमाण है ऐसा परिणाम रखकर, तथैव-और अंगीकृत निरपेक्ष यतिधर्मकी योग्यता द्वारा या उसके अनुरूप ही, योगवृद्धेःसम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप धर्मके.व्यापारके योगकी वृद्धिके लिये, प्रायोपवेशनवत्-अंत समयमें करने योग्य अनशनव्रतकी क्रियाके समान है ऐसा समझकर, श्रेयान्-अतिप्रशस्त, बहुत शुभ या कल्याणकारी है, निरपेक्षयतिधर्म:-जिनकल्प आदि जिसका स्वरूप अन्थोमें प्रसिद्ध है वह निरपेक्ष यतिधर्म।
जिससाधुमें कमसे कम ऊपर कहे हुए सापेक्ष यतिधर्मके पालनमें आवश्यक जो गुण हैं, वे हो और वह नवादि पूर्वधर तथा अन्य इस सूत्रमें कहे गये ( तथा जिनका विवेचन अभी यहां किया है ) सब गुण स्थित हैं जिसमें-इतना सामर्थ्य है, वह उचित समयमे सम्यगपसे प्रमादको जय करनेके लिये, योगकी वृद्धि के लिये, आज्ञाको प्रमाण मानकर अनशनवतकी तरह निरपेक्ष यतिधर्मको स्वीकारे उसके लिये यह अतिशय श्रेष्ठ है। इस निरपेक्ष यतिधर्मके लिये साधुमे महान् गुणोंकी भावश्यकता है। इतना बल, वीर्य तथा नवादि पूर्वका ज्ञान जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रमें वर्तमान समयमें विद्यमान प्रतीत नहीं होता। फिर भी उसका वर्णन जानना भव्य आत्माओंके लिये तथा उसकी ओर लक्ष्य करनेके लिये आवश्यक होनेसे अथकारने बताया है।
तथा-तत्कल्पस्य च परंपरार्थलब्धि
विकलस्येति ॥१२॥ (३७९)