________________
-
-
यतिधर्म देशना विधि : ३३७ क्रोधाद्यनुदय इति ॥६७॥ (३३५) मूलार्थ-क्रोध आदिका उदय न होने दे ॥६॥
विवेचन-क्रोध आदि चारों कपायोका उदय न हो, मूलसे ही उत्पन्न न हों ऐसा यत्न करना चाहिये । जिन कारणोंसे इन् कषायोंका उदय हो उनका ही त्याग अधिक अच्छा है। - तथा-वैफल्यकरणमिति ॥६८॥ (३३६)
मूलार्थ-और उदय हुए क्रोध आदिको निष्फल करे।।६८॥
विवेचन-पूर्व जन्म उपार्जित कर्मसे, उसके कारण मिल जाने पर, क्रोध आदि कषायकी उत्पत्ति कदाचित् हो जाय तो उसे निष्फल करना चाहिये । क्रोध आदिके आवेश जो काम करनेकी इच्छा हो उसको नहीं करना या न होने देना। ऐसा होने पर ही पूर्वोक्त क्षमा, मृदुता, सरलता व संतोष आदि गुणोका सेवन कहा जायगा।
क्रोध आदिका उदय न होने देनेके लिये जो करना चाहिये वह कहते है
विपाकचिन्तेति ॥६९॥ (३३७) मूलार्थ-कपायोंके फलका विचार करना ॥६९॥ विवेचन-क्रोध आदि कषायोंके जो बुरे परिणाम होते है, इस भवमें तथा परभवमें, उन परिणामों व फलोंको सोचे जिससे वे कम हो । जैसे. "क्रोघात् प्रीतिविनाश, मानाद् विनयोपघातमाप्नोति ।
शाठ्यात् प्रत्ययहानि, सर्वगुणविनाशनं लोभात् ॥१८९॥"
-क्रोधसे प्रीतिनाश, मानसे विनयकी हानि, शठता या मायासे (कपटसे) विश्वासकी समाप्ति तथा लोमसे सर्व गुणों का नाश होता है।