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३४२: धर्मविन्दु
मूलार्थ-और सब प्रकारसे मयका त्याग करे ।।७८॥
विवेचन-सब प्रकारसे इस लोक तथा परलोकमें होनेवाले सब भयोसे डरना छोड दे । कर्ममे माननेवाला कभी भय न रखे। सब भोग्य कर्म अवश्य भोगना है और नहीं किया हुआ भोगना ही नहीं है । और जो निरतिचार यतिधर्मका पालन करता है और जिसने एसा कर्म उपार्जन किया है जिससे अनन्त सुख मिले, मोक्षको प्राप्त करनेवाला है अतः उसे मृत्युका भी भय नहीं है तो और सामान्य सय तो हो ही कैसे ! कहा है कि
"प्रायेणाकृतकृत्यत्वान्मृत्योरुद्वेजते जनः । कृतकृत्याः प्रतीक्षन्ते, मृत्यु प्रिमिवातिथिम् ॥१९॥"
-~-जो मनुष्य प्रायः करनेयोग्य कार्यको नही करते हैं वे ही मृत्युसे उद्वेग पाते है पर जिन्होने योग्य कर्म किया है वे तो अपने प्रिय अतिथिकी तरह मृत्युकी राह देखते हैं। मृत्यु उनका प्रिय अतिथि है । मृत्यु ही उच्च जीवन देनेवाली है।
तथा तुल्याश्मकाञ्चनतेति ॥७९॥ (३४७) मूलार्थ-और पत्थर व स्वर्णको बराबर माने ॥७९॥
विवेचन-साधु आसक्ति रहित होकर स्वर्ण व पत्थर को बराबर समझे । 'सम गणे सुवर्ण पाषाण रे' यह साधुका चिद है । अतः धन पर ममत्वभाव न रखे।
तथा-अभिग्रहग्रहणमिति ||८०॥ (३४८) मूलार्थ-और अभिग्रह धारण करे ॥८॥