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यतिधर्म विशेप देशना विधि : ३५७ 'चित प्रवृत्ति करनेवाला, इससे ही सात्मीभूतशुभयोगस्य-जैसे तप्त लोहपिंड अमिके साथ एकमेक या एक समान हो जाता है ऐसे ही जिसकी आत्मामें शुभ योग व्याप्त है ऐसा, अर्थात् शुभ भावनामय ।
यतिधर्म दो प्रकारका है । सापेक्ष यतिधर्मको पालने लायक जो यति है उसके गुण यहां कहे गये हैं। जिस यतिमें या व्यक्तिमें उपरोक्त (इस सूत्रम) वर्णन किये हुए गुण हों उसके लिये सापेक्ष यतिधर्म ही श्रेयकारी या मंगलमय है, अन्य नहीं। ऐसा क्यों ? अर्थात् इन गुणोपाला निरपेक्ष यतिधर्म क्यों न पाले ? कहते हैं
वचनप्रामाण्यादिति ॥३॥ (३७०) मृलार्थ-भगवानकी आज्ञा इसका प्रमाण है ॥३॥ . विवेचन-उपरोक्त गुणवाला निरपेक्ष यतिधर्म न पाले पर सापेक्ष रीतिसे पाले ऐसी भगवानकी आज्ञा है । यह कैसे कहा है ? किस आधारसे ? कहते हैंसंपूर्णदशपूर्वविदो निरपेक्षधर्मप्रतिपत्ति- ..
प्रतिषेधादिति । ४॥ (३७१). मूलार्थ-संपूर्ण दश पूर्व जाननेवालेको निरपेक्ष यतिधर्म अंगीकार करनेका निषेध है ॥४॥ निषेधके लिये निम्न सूत्र कहा है"गच्छे चिय निम्माओ, जा पुन्वदसमवे. असंपुग्णा। नवमरस तइयवत्थू , होइ जहन्नो सुआभिगमो ॥१९८॥
-~~-साधु समुदायमें रह कर निरपेक्ष यतिधर्म पालन करनेके अभ्यासमें परिपक्क हो और इस प्रतिमाकल्पादिक निरपेक्ष यतिधर्मके