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यतिधर्म देशना विधि : ३३५ "खती य मद्दवऽजव, विमुत्तयाऽदीया तितिक्खा य । आवस्सगपरिसुद्धी य भिक्खुलिंगाइ एयाई" ॥१८७॥
-~-संवेग मोक्षकी अभिलाषा), निर्वेद (ससारसे विरक्ति', विषय विवेक (हेय व उपादेयका विवेक), सुशील साधुकी संगति, ज्ञानादि गुणकी आराधना, बाह्य-अभ्यंतर तप करना, ज्ञान-दर्शन
और चारित्रका विनय करना; क्षमा, मृदुता, मान, माया व लोमका त्याग, दीनता छोडा तथा परीषह-उपसर्ग आदि सहना और आवश्यक काँकी शुद्धि (पडिलेहण आदि) या धर्मानुष्ठान-ये सब साधुके लक्षण हैं या साधुके चिह्न हैं।
तथा-यथाशक्ति तपासेवनमिति ॥२॥(३३०)। मूलार्थ-और शक्तिके अनुसार तप करे ॥२॥
विवेचन-अपनी शक्तिके अनुसार न अधिक कृश करके, न शरीरको बचाकर, तपका आचरण करना चाहिये । कहा है कि"कायो न केवलमय परितापनीयो,
मिष्टै रसैर्वहुविधेर्न च लालनीयः। चित्तेन्द्रियाणि न चरन्ति यतोत्पथेन,
वश्यानि येन च तदाचरित जिनानाम् ॥१८८॥" ----शरीरको केवल कष्ट हो ऐसा तप न करे, नही बहुत मधुर तथा रसप्रद पदार्थों द्वारा उसका लालन पालन करे जिससे चित्त व इन्दियां गलत राह पर न चलें और वशमें हो ऐसा जिन परमात्माका कहा हुआ तप है।
तथा-परानुग्रहक्रियेति ॥६३।। (३३१)