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यतिधर्म देशना विधि - ३३१ लिये विविध स्थलोमें घूमे । किसी देश, स्थान, कुल अथवा भक्तजनके प्रति ममता नहीं रखना चाहिये।
तथा-परकृतविलवास इति ।।१४।। (३२२) मृलार्थ-अनुज्ञासे शुद्धि करके निवास करे ॥५४॥
विवेचन-अवग्रह पाच है- देवेन्द्र, राजा, गृहपति, शय्यातर व साधर्मिक-इन पाचौंकी आज्ञा या अनुज्ञा लेकर तब उस स्थान पर रहे । साधुके पास अपना कोई स्थान नहीं अत जिसके आषिपत्यमें जगह हो उसकी आज्ञा लेना जरूरी है।
सौधर्मेन्द्र जो इस स्थानका अधिपति है, राजा, चक्रवर्ती आदि जिसका राज्य हो, गृहपति, उस देशका नायक या जागीरदार हो, शय्यातर-उस घरता खुद मालिक या जिसके कबजेमें वह स्थान हो तथा आचार्य, उपाध्याय आदि जो आसपास पाच कोस तक रहते हो उनकी आज्ञा लेना चाहिये । इन सबकी आज्ञा ही अवग्रह शुद्धि हैं। उसके बाद ही वहां निवास करे।
मासादिकल्प इति ॥५५॥ (३२३) मूलार्थ-मास आदि कल्पके अनुसार विहार करे ॥५५॥
विवेचन-मास कल्प व चतुर्मास कल्प नो गालमें कहा है उसके अनुसार विहार करे । साधु चातुर्मासमें चारों महिने (अथवा पांच) तथा अन्य समयमें एक माससे अधिक एक जगह रह नहीं सकते । अत: उस प्रकार विहार करना चाहिये ।