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३३२ : धर्मयिन्दु
जब दुष्काल हो, राजाओका परस्पर युद्ध हो, अपने पैरसे चलनेकी -शक्तिका हास हो ऐसे समय मासकल्प आदिके अनुसार विहार या भ्रमण न कर सके तो क्या करे ?
एकत्रेव तक्रियेति ॥५६॥ (३२४) मूलार्थ-एक ही क्षेत्रमें मासकल्प आदि करे ॥५६॥
विवेचन-उपरोक्त कारणोसे एक 'नगर या देश छोडकर दूसरी जगह जानेका न हो सके तो एक गांवसे दूसरे गांव, एक स्थानसे -दूसरे स्थान, एक गलीसे दूसरी गली अथवा तो भिन्न उपाश्रय, उसी उपाश्रयमे भिन्न स्थान, अथवा तो अंततः जिस स्थान पर संथारा हो उसको छोड़ कर दूसरे स्थानमें संथारा करे पर कल्पको दूषण न लगे । कहा है कि
"सथारपरावत्त, अभिग्गहं चेव चित्तरूवं तु । एत्तो चरित्तिणो इह, विहारपडिमाइसु करित्ति" ॥१८४॥
-जिनशासनके चारित्रधारी मुनिविहार और पडिमाको करनेके लिये अंतत संथारा परिवर्तन भी करके और अभिग्रह करके उसका पालन करें।
तत्र च सर्वत्रामसत्वमिति ॥५७॥ (३२५) मलार्थ-वहां भी सब वस्तुओंमें ममत्वरहित हो ॥१७॥
विवेचन- वृद्धावस्था आदि उपरोक्त कारणोंसे यदि एक ही -स्थल पर रहना पडे तो भी वहा रही हुई सब वस्तुओं, उपाश्रय, पुस्तक या अन्यके प्रति ममत्वभावना रहित रहे, इसीलिये भ्रमण आवश्यक है।