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२९८: धर्मविन्दु अवस्वरूपविज्ञानात , तद्विरागाच तत्त्वतः। अपवर्गालुरागाच, स्थादेतन्नान्यथा, कचित् ॥२७॥
मूलार्थ- संसारके स्वरूपको जाननेसे, उस पर वस्तुतः वैराग्य होनेसे तथा मोक्षके प्रति अनुरागसे यतिधर्मका पालन हो सकता है अन्यथा किसी तरह नहीं ॥२७॥
दिलेच्न - मनस्वरूपस्य- ससारका स्वरूप जो क्षणमुंगुर है अथवा इन्द्रजाल, मृगतृष्णा, गुन्धर्वनगर या स्वप्नके सदृश है । विज्ञानात्- शास्त्रचक्षुसे भी प्रकार पहलेसे देखनेमे, तद्विरागातूजैसे तपे हुए लोहे पर पैर रखनेसे जो उद्वेग हो ऐसा, वैराग्य संसारसे होने पर पूर्णतः विरक्तिसे, तत्त्वतः- वस्तुतः- दिना कपटभावके वास्तविक विरक्ति, अपवर्गानुरागाव- परम पदको प्राप्त करनेकी तीव्र इच्छासे, स्यादेतत्- यतिधर्मका पालन होना, नान्यथाअन्य किसी भी प्रकारसे नहीं, कचित- किसी भी क्षेत्र या कालमें-नहीं। ___ ससार अनित्य है। सर्व वस्तुएं तथा सुख क्षणभगुर है। संसारके ऐसे वास्तविक रूपके जान टेनेसे उससे वैराग्य हो जाता है। उसके प्रति तीव्र उद्वेग हो जाता है तथा इससे छुटकारा पानक लिये जब मोक्षकी प्राप्तिकी उत्कंठा बढ़ जाती है। पूर्ण इच्छासे मुक्ति पाना चाहे तभी यतिधर्मका पालन हो सकता है तब वह इतना कष्ट साध्य भी नहीं लगता । आसान दिखता है। जो पुरुष संसारकी असारताको समझ ले वही इस सयमके योग्य है, लक्ष्य मोक्षका