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३६४ : धसदिन्दु
विवेचन-गुरुका विनय, स्वाध्याय, 'साधुका सम्यक् भाचार, आदि जो भी अंगीकार किया है वह कदापि न छोड़े, उसकी उपेक्षा 'या अनादर न करे । उसे यथार्थ रीतिसे पालन करे। साधुके आचार जो पुरुष तिरस्कार करते हैं उनको जन्मान्तरमें भी वह अचार दुर्लम होता है ।।२९६॥
तथा-असत्प्रलापाश्रुतिरिति ॥२८॥(२९७) झूलार्थ-असद (दुष्ट) पुरुषों के वचन नहीं सुने ॥२८॥ -विवेचन--असतां-जो संत नहीं, खल या दुष्ट, प्रलापा:-विना मतलबके निरथक वचन, अश्रुति नहीं सुनना-ध्यान न देना ।
ऐसे दुष्ट जनो निरर्थक वचनोंको नहीं सुनना, उनकी ओर लक्ष न देना । यदि वह अपने अपमान आदिमे कहे जावे तो उसके प्रति द्वेष न करके उसको उलटा अनुग्रह समझना, अपने पर किया उपकार समझें। कारण कि वह अपनेको हमारे दोष दिखाता है। कहा है कि"निराकरिष्णुर्यदि नोपलभ्यते,
भविष्यति शान्तिरनाश्रया कथम् । थदाश्रयात् शान्तिफलं मयाऽऽप्यते,
स सत्कृति कर्म च नाम नाहति" ॥१७३॥ -~-यदि कोई अपमान करनेवाला न हुआ तो क्षांति (क्षमा)का आधार क्या ? अपमान होनेसे मेरी क्षमाको जो स्थान मिला है उससे क्षमा रखनेका फल मुझे मिलता है। क्षमागुण व लोको.